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गीता दर्शन

भगवत गीता का नीतिशास्त्र कर्म, ज्ञान और भक्ति के समन्वय पर आधारित है, जिसका मूल सिद्धांत निष्काम कर्म योग है। यह मनुष्य को कर्तव्य पालन और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाता है।

​🧭 मुख्य नैतिक सिद्धांत

​भगवत गीता के नीतिशास्त्र के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं:

  • निष्काम कर्म योग (फल की आसक्ति के बिना कर्म):
    • ​यह गीता का केंद्रीय नैतिक विचार है।
    • ​इसका अर्थ है अपने कर्तव्य (कर्म) को करना, लेकिन उस कर्म के फल या परिणाम की इच्छा या आसक्ति न रखना।
    • ​भगवान कृष्ण कहते हैं: "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन..." (कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं)।
    • ​यह सिद्धांत प्रवृत्ति (समाज में रहते हुए कर्म) और निवृत्ति (कर्मफल का त्याग) के बीच समन्वय स्थापित करता है।
  • स्वधर्म का पालन:
    • ​इसका अर्थ है अपने निर्धारित कर्तव्य या धर्म का पालन करना
    • ​श्री कृष्ण अर्जुन को क्षत्रिय होने के नाते युद्ध करने का उपदेश देते हैं, क्योंकि "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" (अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारी है, दूसरे का धर्म भय पैदा करने वाला होता है)।
    • ​यह केवल वर्ण व्यवस्था से संबंधित नहीं है, बल्कि व्यक्ति की योग्यता और स्थिति के अनुसार उसके कर्तव्यों को निभाने पर ज़ोर देता है।
  • अनासक्ति और समत्व:
    • ​सभी सांसारिक दुःखों का मूल आसक्ति में निहित है।
    • ​व्यक्ति को लाभ-हानि, सुख-दुःख, जय-पराजय जैसी द्वंद्वात्मक स्थितियों में समभाव (समत्व) बनाए रखना चाहिए।
    • समत्वम् योग उच्यते (समत्व को ही योग कहा जाता है)।
  • बुद्धि और इंद्रिय जय (आत्म-संयम):
    • ​मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ आदि मनोवेगों को नियंत्रित करना चाहिए।
    • इंद्रियों पर नियंत्रण ही सबसे बड़ी आत्म-विजय है। इंद्रियों के विषयों का लगातार चिंतन बुद्धि के नाश का कारण बनता है।

​🎯 नीतिशास्त्र का सार

​गीता का नीतिशास्त्र एक व्यवहारिक और संतुलित जीवन जीने की शिक्षा देता है। यह निष्क्रियता की निंदा करता है और कहता है कि कोई भी व्यक्ति क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। इसलिए, हमें अहंकार या स्वार्थ से मुक्त होकर, फल की चिंता किए बिना, अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।

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