रस -
रस का शाब्दिक अर्थ है – 'आनंद' ।
किसी काव्य को पढ़ने , सुनने , लिखने या उसका अभिनय देखने से पाठक , श्रोता , लेखक या दर्शक को आनंद की जो अनुभूति होती है, उसे काव्य में ‘रस’ कहते हैं ।
काव्य का चाहे कोई भी रूप हो , जैसे – कहानी , कविता ,गीत , फिल्म , नाटक; इनसे आनंद की अनुभूति प्राप्त होती है। इस अनुभूति को ही ‘रस’ कहते हैं ।रस को काव्य की आत्मा / प्राणतत्व माना जाता है ।
रसनिष्पत्ति -
पाठक, श्रोता, दर्शक, अभिनयकर्ता के हृदय (सहृदय) में स्थित स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों से संयोग होता है, तब रस निष्पत्ति होती है अर्थात आनंद प्राप्त होता है ।
यह आनंद अलौकिक और अकथनीय होता है । इसी साहित्यिक आनंद को ‘रस’ कहते हैं । साहित्य में रस का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान माना गया है । रस काव्य का अनिवार्य तत्व है ।
साहित्य दर्पण के रचनाकार विश्वनाथ जी ने कहा है – “रसात्मकम् वाक्यं काव्यम्” ।
भरतमुनि के अनुसार -
विभावानुभावसंचारीभावसंयोगाद्रसनिष्पत्ति : - विभाव अनुभाव संचारी भाव संयोगात् रस निष्पत्ति:
अर्थात सहृदय के हृदय में स्थित स्थायी भाव का जब विभाव , अनुभाव और संचारी भावों से संयोग होता है , तब रस निष्पत्ति होती है ।
रस के अवयव (अंग) –
रस के मुख्य रूप से 4 अवयव होते हैं –
- स्थायी भाव
- विभाव
- अनुभाव
- संचारीभाव
1. स्थायीभाव –
यह रस का प्रधान भाव है अर्थात यह रस का आधार है। दूसरे शब्दों में कहें तो यही भाव रस की अवस्था तक पहुंचता है। एक रस का आधार एक स्थायी भाव ही होता है ।
स्थायी भावों की कुल संख्या मूलतः 9 मानी गई है ; इस आधार पर रसों की संख्या भी मूल रूप से 9 मानी जाती है। इन्हें सम्मिलित रूप से नवरस कहते हैं। बाद के आचार्यों ने वात्सल्य (संतान स्नेह) को भी स्थायी भाव के रूप में मान्यता प्रदान की। इस प्रकार यदि वात्सल्य रस को भी शामिल कर लिया जाए , तो स्थायी भावों की कुल संख्या 10 और रसों की कुल संख्या 10 हो जाती है ।
भरतमुनि ने रसों की संख्या 8 माना है।
स्थायी भाव –
- रति
- हास / हँसी
- शोक / करुणा
- क्रोध
- उत्साह / वीरता
- भय
- जुगुप्सा / घृणा
- विस्मय / आश्चर्य / अचंभा
- वैराग्य / निर्वेद
- वात्सल्य/ संतान स्नेह
विभाव –
स्थायी भाव जिन कारणों से उत्पन्न होते हैं, उन्हें विभाव कहा जाता है । उत्पन्न होने वाला हर एक स्थायी भाव किसी न किसी कारण से ही उत्पन्न होता है। उसी कारण अथवा कारणों को विभाव कहा जाता है ।
एक ही समय में कोई स्थायी भाव किसी एक ही कारण से उत्पन्न हो , यह आवश्यक नहीं । हो सकता है , कि एक ही समय में कोई स्थायी भाव अनेक विभावों से उत्पन्न हो ।
साथ ही आवश्यक नहीं है , कि कोई विभाव किसी व्यक्ति के हृदय में एक ही स्थायी भाव उत्पन्न करे। एक ही विभाव दो व्यक्तियों के हृदय में अलग - अलग स्थायी भाव उत्पन्न कर सकते हैं ।
विभाव के प्रकार –
- आलंबन विभाव
- उद्दीपन विभाव
- आलंबन विभाव – स्थायी भाव उत्पन्न होने के मुख्य कारण को आलंबन विभाव कहा जाता है ।
- उद्दीपन विभाव – स्थायी भावों को तीव्र करने वाले कारकों को उद्दीपन विभाव कहते हैं ।
आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं –
- आश्रयालम्बन - जिसके मन में भाव जगे, वह आश्रयालंबन कहलाता है ।
- विषयालम्बन – जिसके कारण मन में भाव जगे, वह विषयालम्बन कहलाता है ।
उदाहरण – माता यशोदा के मन में श्रीकृष्ण के प्रति वात्सल्य का भाव जगता है , तो माता यशोदा आश्रय हैं और श्रीकृष्ण विषय ।
शेर को देखकर किसी व्यक्ति के प्रति भय नामक भाव जगता है, तो व्यक्ति आश्रय हैं और शेर विषय ।
अनुभाव –
शब्दों में , जिन चेष्टाओं द्वारा भावों का अनुभव या प्रदर्शन होता है , उन्हें अनुभाव कहते हैं ।
संचारी भाव –
स्थायी भावों को पोषित करने के लिए आने वाले भाव संचारी भाव कहलाते हैं। ये भाव आश्रय के मन में अस्थिर मनोविकार होते हैं। ये स्थायी भाव को पुष्ट करके नष्ट हो जाते हैं ।
अन्य शब्दों में, मन में संचरण करने वाले अस्थिर मनोविकारों को संचारी भाव कहते हैं ।
संचारी भावों की संख्या 33 मानी गई है –
हर्ष , विषाद , त्रास (भय / व्यग्रता) , लज्जा (ब्रीड़ा) , ग्लानि , चिंता , शंका , असूया (दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता) ,अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पन्न दुख) , मोह , गर्व , उत्सुकता , उग्रता , चपलता , दीनता , जड़ता ,आवेग , निर्वेद (अपने को कोसना या धिक्कारना) , धृति (इच्छाओं की पूर्ति , चित्त की चंचलता का अभाव) , मति , बिबोध (चैतन्य लाभ) , वितर्क , श्रम , आलस्य , निद्रा , स्वप्न , स्मृति , मद , उन्माद , अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना) , अपस्मार (मूर्छा) , व्याधि , मरण ।
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