यह इकाई, 'विकास नीतियाँ और अनुभव (1947-90)'
इस इकाई में जिन विषयों का अध्ययन किया गया है, वे निम्नलिखित हैं:
स्वतंत्रता पूर्व से लेकर नियोजित विकास के चार दशकों तक के भारत द्वारा चुने गए पथ का समग्र रूप से अवलोकन
। भारत सरकार द्वारा किए गए कठोर उपाय जैसे-योजना आयोग का निर्माण तथा पंचवर्षीय योजनाओं की घोषणा आदि का अध्ययन
। पंचवर्षीय योजनाओं के समग्र अवलोकन का अध्ययन
। नियोजित विकास की विशेषताओं तथा परिसीमाओं के मूल्यांकन का अध्ययन
।
🇮🇳 स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था (1947)
यह अध्याय स्वतंत्रता प्राप्ति के समय वर्ष 1947 में भारत की अर्थव्यवस्था की दशा के बारे में जानकारी देता है
मुख्य विषय और स्थितियाँ:
आर्थिक विकास
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का मुख्य उद्देश्य इंग्लैंड में तेजी से विकसित हो रहे औद्योगिक आधार के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को केवल एक कच्चा माल प्रदायक तक ही सीमित रखना था
। औपनिवेशिक शासकों द्वारा रची गई आर्थिक नीतियों का ध्येय भारत का आर्थिक विकास नहीं बल्कि अपने मूल देश (ब्रिटेन) के आर्थिक हितों का संरक्षण और संवर्धन था
। भारत, इंग्लैंड को कच्चे माल की पूर्ति करने तथा वहाँ के बने तैयार माल का आयात करने वाला देश बन कर रह गया
। 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत की राष्ट्रीय आय की वार्षिक संवृद्धि दर 2 प्रतिशत से कम रही, और प्रतिव्यक्ति उत्पाद वृद्धि दर तो मात्र आधा प्रतिशत ही रह गई
। औपनिवेशिक काल के दौरान राष्ट्रीय और प्रतिव्यक्ति आय का आकलन करने वालों में दादा भाई नौरोजी, विलियम डिग्बी, फिंडले शिराज, डॉ. वी.के.आर.वी.राव तथा आर.सी. देसाई प्रमुख रहे हैं
।
कृषि क्षेत्रक
भारत मूलतः एक कृषि अर्थव्यवस्था ही बना रहा
। लगभग 85 प्रतिशत जनसंख्या कृषि के माध्यम से ही अपनी रोजी-रोटी कमा रही थी
। यह क्षेत्र गतिहीन विकास की प्रक्रिया में रहा और अनेक अवसरों पर अप्रत्याशित हास या गिरावट भी अनुभव की गई
। गतिहीनता का मुख्य कारण औपनिवेशिक शासन द्वारा लागू की गई भू-व्यवस्था प्रणालियाँ थीं, जैसे जमींदारी व्यवस्था
। अन्य कारण थे: प्रौद्योगिकी के निम्न स्तर, सिंचाई सुविधाओं का अभाव और उर्वरकों का नगण्य प्रयोग
। किसानों को खाद्यान्न की खेती के स्थान पर नकदी फसलों का उत्पादन करना पड़ता था, जिनका प्रयोग इंग्लैंड में लगे कारखानों में किया जाता था
।
औद्योगिक क्षेत्रक
भारत एक सुदृढ़ औद्योगिक आधार का विकास नहीं कर पाया
। वि-औद्योगीकरण का दोहरा उद्देश्य था:
भारत को इंग्लैंड के आधुनिक उद्योगों के लिए कच्चे माल का निर्यातक बनाना
। भारत को उन उद्योगों के उत्पादन के लिए एक विशाल बाज़ार बनाना
।
विश्व प्रसिद्ध शिल्पकलाओं का पतन हो रहा था, और उनके स्थान पर किसी आधुनिक औद्योगिक आधार की रचना नहीं होने दी गई
। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कुछ आधुनिक उद्योगों की स्थापना हुई, जिनकी उन्नति बहुत धीमी थी
। प्रारंभिक उद्योग
सूती वस्त्र उद्योग: प्रायः भारतीय उद्यमियों द्वारा पश्चिमी क्षेत्रों (महाराष्ट्र और गुजरात) में लगाए गए
। पटसन उद्योग: विदेशियों द्वारा स्थापित, केवल बंगाल प्रांत तक सीमित रहा
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अन्य विकास
लोहा और इस्पात उद्योग: टाटा आयरन स्टील कंपनी (TISCO) की स्थापना 1907 में हुई
। दूसरे विश्व युद्ध के बाद चीनी, सीमेंट, कागज़ आदि के कुछ कारखाने भी स्थापित हुए
।
पूँजीगत उद्योगों का प्रायः अभाव बना रहा
। सार्वजनिक क्षेत्रक का कार्यक्षेत्र रेलों, विद्युत उत्पादन, संचार, बंदरगाहों और कुछ विभागीय उपक्रमों तक ही बहुत कम रहा
।
विदेशी व्यापार
औपनिवेशिक सरकार की प्रतिबंधकारी नीतियों के कारण व्यापार की संरचना, स्वरूप और आकार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा
。 भारत कच्चे उत्पादों (जैसे रेशम, कपास, ऊन, चीनी, नील, पटसन) का निर्यातक
तथा अंतिम उपभोक्ता वस्तुओं (सूती, रेशमी, ऊनी वस्त्रों, हल्की मशीनों) का आयातक हो गया । इंग्लैंड का आयात-निर्यात व्यापार पर एकाधिकार था
। भारत का आधे से अधिक व्यापार केवल इंग्लैंड तक सीमित रहा । स्वेज नहर (1869 में खुली) ने परिवहन लागतें कम कर दीं और भारतीय बाज़ार तक पहुँचना सुगम कर दिया
। निर्यात अधिशेष का बड़ा आकार एक विशेषता थी
। इस अधिशेष का उपयोग भारत में सोने और चाँदी के प्रवाह पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाया, बल्कि यह अंग्रेजों की भारत पर शासन करने की व्यवस्था का खर्च उठाने और अंग्रेजी सरकार के युद्धों पर व्यय करने में ही उपयोग हो जाता था (संपदा का दोहन)
।
जनांकिकीय परिस्थिति
प्रथम सरकारी जनगणना 1881 में हुई थी
। जनांकिकीय संक्रमण के प्रथम सोपान से द्वितीय सोपान का आरंभ वर्ष 1921 के बाद माना जाता है
। जनसंख्या की संख्यात्मक स्थिति (औपनिवेशिक काल):
सकल मृत्यु दर बहुत ऊँची थी
। शिशु मृत्यु दर 218 प्रति हजार थी (आज की 28 प्रति हजार की तुलना में)
। जीवन प्रत्याशा केवल 32 वर्ष थी (आज के 69 वर्ष की तुलना में)
。 साक्षरता दर 16 प्रतिशत से कम थी
। महिला साक्षरता दर नगण्य, केवल 7 प्रतिशत थी
। अत्यधिक गरीबी व्याप्त थी
।
व्यावसायिक संरचना
कृषि सबसे बड़ा व्यवसाय था, जिसमें 70-75 प्रतिशत जनसंख्या लगी थी
। विनिर्माण क्षेत्रक में 10 प्रतिशत तथा सेवा क्षेत्रकों में 15-20 प्रतिशत जन-समुदाय को रोजगार मिल पा रहा था
। क्षेत्रीय विषमताओं में वृद्धि एक बड़ी विलक्षणता रही
। मद्रास प्रेसीडेंसी (तमिलनाडु, आंध्र, कर्नाटक, केरल), मुंबई और बंगाल के कुछ क्षेत्रों में कृषि पर निर्भरता में कमी आई
। पंजाब, राजस्थान और उड़ीसा के क्षेत्रों में कृषि में लगे श्रमिकों के अनुपात में वृद्धि आँकी गई
।
आधारिक संरचना
देश में रेलों, पत्तनों, जल परिवहन व डाक-तार आदि का विकास हुआ, जिसका ध्येय जनसामान्य को सुविधाएँ प्रदान करना नहीं था, बल्कि औपनिवेशिक हित साधन करना था
। सड़कें: इनका ध्येय सेनाओं के आवागमन की सुविधा तथा कच्चे माल को निकटतम रेलवे स्टेशन या पत्तन तक पहुँचाने में सहायता करना था
। सभी मौसम में उपयोग होने वाले सड़क मार्गों का अभाव था । रेलें: अंग्रेज़ों ने 1850 में आरंभ किया, जिसे उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है
। लोगों को लंबी यात्राएँ करने के अवसर प्राप्त हुए
। भारतीय कृषि के व्यावसायीकरण को बढ़ावा मिला
।
आंतरिक जलमार्ग अलाभकारी सिद्ध हुए, जैसे उड़ीसा की तटवर्ती नहर
। तार व्यवस्था का मुख्य ध्येय कानून व्यवस्था को बनाए रखना था
। डाक सेवाएँ जनसामान्य को सुविधा प्रदान कर रही थीं, किंतु वे बहुत ही अपर्याप्त थीं
。
🛑 स्वतंत्रता के समय प्रमुख आर्थिक चुनौतियाँ
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश के समक्ष उपस्थित प्रमुख आर्थिक चुनौतियाँ थीं
कृषि क्षेत्रक: अत्यधिक श्रम-अधिशेष के भार से लदा था और उत्पादकता का स्तर बहुत कम था
। औद्योगिक क्षेत्रक: आधुनिकीकरण, वैविध्य, क्षमता संवर्धन और सार्वजनिक निवेश में वृद्धि की माँग कर रहा था
। विदेशी व्यापार: केवल इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति को पोषित कर रहा था
। आधारिक संरचना: रेलवे नेटवर्क सहित सभी आधारिक संरचनाओं में उन्नयन, प्रसार तथा जनोन्मुखी विकास की आवश्यकता थी
। गरीबी और बेरोजगारी: व्यापक गरीबी और बेरोजगारी भी सार्वजनिक आर्थिक नीतियों को जनकल्याणोन्मुखी बनाने का आग्रह कर रही थीं
। सामाजिक और आर्थिक चुनौतियाँ बहुत अधिक थीं
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