पर्यावरणीय संकट वर्तमान परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण समस्या के रूप में उभरा है। पर्यावरण संकट एक प्रकार से पर्यावरण के तत्वों में होने वाला नकारात्मक परिवर्तन है जो कि प्राणी और वनस्पति जगत को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से निरंतर हानि पहुंचाता है तथा इस हानि की परिणति विनाश में होती है। यह एक सामाजिक संकट है जो कि अविवेकपूर्ण मानवीय गतिविधियों के फलस्वरूप उत्पन्न होता है। इन मानवीय गतिविधियों के अंतर्गत जीवन स्तर को आरामदेह और व्यवस्थित करने के लिए व्यक्तियों द्वारा किए गए कार्यकलापों को शामिल किया जाता है। पर्यावरण जो कि पृथ्वी पर पाये जाने वाले जीवधारियों के लिए अति आवश्यक है, आज धीरे धीरे विकृत होता जा रहा है। सरल - शब्दों में यदि हम कहें, तो हम शनैः शनैः विनाश की ओर अग्रसर हो रहे हैं। प्रदूषण - विनाश का ही एक प्रारम्भिक स्वरूप है। यह प्रदूषण नकारात्मक प्रकार्यों से उत्पन्न असंतुलन है। पर्यावरण के इस तरह से विकृत होने के कारणों पर यदि हम एक दृष्टि डालें तो हमें अनेक कारणों का ज्ञान होता है।
पर्यावरण संकट का सबसे बड़ा कारण उच्च उपभोक्तावादी संस्कृति है। जनसंख्या में हो रही निरंतर वृद्धि, संसाधनों के अनुचित दोहन व प्रयोग, कचरा कुव्यवस्थापन, वैज्ञानिक प्रयोगों, रेडियोधर्मी विकिरणों, खनन आदि के परिणामस्वरूप वायु, थल व जलमण्डल प्रभावित हो रहे हैं। ये सभी गतिविधियाँ पृथ्वी के अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न कर रही हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण मनुष्य समाज प्रकृति पर अत्यधिक निर्भर हो गया है। संसाधनों का गैर-विवेकपूर्ण तरीके से तीव्रता से दोहन किया जा रहा है।
उदाहरण के लिए बढ़ती जनसंख्या के लिए आवासों की आवश्यकता उत्पन्न हो रही है। आवास के लिए लकड़ी व स्थान की आवश्यकता पूरी करने के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है। इसके अलावा ईंधन के लिए लकड़ी की पूर्ति वनों से की जा रही है। गृह निर्माण में काम आने वाले ईंट और अन्य सामग्री के लिए भूखनन किया जा रहा है। उत्पादन बढ़ाने के लिए कृषि में रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है। आवागमन के साधनों के विकास से विषैली गैसें वातावरण में घुलकर इसे विषाक्त कर रही हैं। इन सभी गतिविधियों को बिना किसी योजना और आर्थिक समझाइश के संपादित किए जाने से पर्यावरणीय असामंजस्य उत्पन्न हो गया है एवं पर्यावरण संरक्षण हमारे लिए बड़ी चुनौती बन गया है।
ये दुष्परिणाम हमें प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वैश्विक तापमान में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, गर्म हवाएँ और तापाघात, दावानल, भूकंप, भूस्खलन, कुछ थलचर-जलचर- नभचर जीवों की प्रजातियों का विनाश, अनेक शारीरिक व मानसिक रोगों की उत्पत्ति, भूमि का बंजर होना, भौम और सतही जलस्तर में निरंतर गिरावट, सुनामी, भूमि का अधिग्रहण, ओजोन क्षरण, जैव विविधता का ह्वास, ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि, जल प्लावन, लवणीकरण, अम्ल वर्षा आदि के रूप में देखने को मिल रहे हैं। चूंकि ये सभी घटनाएँ एक दूसरे से अंतर्संबंधित हैं, इसलिए एक घटना के घटित होने पर अन्य घटनाएँ भी अवश्यंभावी होती हैं तथा इनका दुष्प्रभाव प्राणियों एवं वनस्पतियों पर समान रूप से पड़ता है।
इन समस्याओं पर नियंत्रण के लिए हमें सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि यदि हमने ऐसा नहीं किया तो निश्चित ही पृथ्वी के विनाश का मार्ग प्रशस्त होता जाएगा। यद्यपि ये समस्याएँ दिनों दिन बढ़ती ही जा रही हैं परंतु इसका आशय यह नहीं कि इन पर नियंत्रण स्थापित नहीं किया जा सकता। समन्वित प्रयास करने से हम अच्छे पर्यावरण के निर्माण में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। अब प्रश्न यह आता है कि हमें किस तरह के समन्वित प्रयास करने होंगे ?
इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि हमें अपनी उपभोक्तावादी संस्कृति को
विनियमित करना होगा। अनियमित उपभोक्तावादी संस्कृति ऐसे उद्योगों की स्थापना को अनवरत जारी रखना होगा। प्रत्येक जन को हर वर्ष कम से कम एक पौधा अवश्य
लगाकर उसकी सुरक्षा करनी चाहिए। ईंधन के रूप में लकड़ियों का प्रयोग न करके
वैकल्पिक तौर पर गोबर गैस, सौर ऊर्जा, प्राकृतिक गैस या अन्य किसी ईंधन का प्रयोग
करना चाहिए, जो पर्यावरण के अनुकूल हो। जहाँ अति आवश्यक हो वहीं पर ईंधन से
चलने वाले आवागमन के व्यक्तिगत साधनों का प्रयोग किया जाना चाहिए। कृषि में
रासायनिक खादों का प्रयोग न करते हुए जैविक खादों के प्रयोग को बढ़ावा देने से प्रदूषण
में कमी के साथ ही उत्पादन व उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है। वर्षा जल के संरक्षण के लिए
भूमिगत पुनर्भरण तकनीक का प्रयोग अत्यधिक प्रभावी तकनीक है। एयर कंडीशनर एवं
रेफ्रीजरेशन उपकरणों का प्रयोग कम से कम किया जाए तो उचित होगा। हमें जनसंख्या
विस्थापन को भी रोकना होगा क्योंकि अपने मूल निवास स्थान से विस्थापित जन समूह
अपने आर्थिक सामाजिक क्रियाकलापों से पर्यावरण को क्षति पहुँचाता है। हमें इस तरह
की तकनीकी एवं प्रौद्योगिकीय कुशलता प्राप्त करनी होगी जो पर्यावरण संरक्षण को ध्यान
में रखती हो। अतिशय ऊर्जा का प्रयोग न करके और उसे प्रभावी तरीके से उपयोग करना
होगा तथा अन्य लोगों को भी इस संबंध में जागरूक करना होगा। पर्यावरण संरक्षण संबंधी
सरकारी नीतियों को प्रभावी रूप से अपनाना अति आवश्यक है।
समग्र रूप से कहें, तो पर्यावरण को संरक्षित रखना या उसे नष्ट करना केवल मनुष्य के हाथों में है। विज्ञान प्रदत्त सुविधाओं का विवेकशील प्रयोग करके हम अपने पर्यावरण को न केवल संरक्षित रख सकते हैं, बल्कि आगामी पीढ़ी को उपहार में स्वच्छ और सुखद जीवन के अवसर प्रदान कर सकते हैं।
शक्ति पटेल (शिक्षक) ग्राम - मांद, जिला - मंडला (मध्य प्रदेश)
0 Comments