रचनाकार - दुष्यंत कुमार
यह गज़ल हिंदी साहित्य की एक अत्यंत महत्वपूर्ण रचना है। यह गज़ल उनके प्रसिद्ध संग्रह 'साये में धूप' से ली गई है।
दुष्यंत कुमार को 'हिंदी गज़ल का सम्राट' कहा जाता है। इस गज़ल में उन्होंने आजादी के बाद भारतीय राजनीति और समाज में आई गिरावट, भ्रष्टाचार और आम आदमी की पीड़ा का बहुत ही मार्मिक और तीखा चित्रण किया है।
यहाँ इस गज़ल की शेर-दर-शेर (Couplet by Couplet) संपूर्ण व्याख्या दी जा रही है:
1. पहला शेर
"कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए,
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।"
शब्दार्थ: चराग़ाँ = बहुत सारे दीये (खुशियाँ/सुख-सुविधाएँ), मयस्सर = उपलब्ध/प्राप्त।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि आजादी के समय नेताओं ने वायदा किया था कि अब देश के हर एक घर में खुशियों के दीपक जलेंगे (हर व्यक्ति को सुख-सुविधा मिलेगी)। लेकिन आज स्थिति यह है कि पूरे शहर के लिए एक दीपक भी उपलब्ध नहीं है।
भाव: यह शेर राजनेताओं के झूठे वादों और आजादी के बाद की मोहभंग (Disillusionment) की स्थिति को दर्शाता है।
2. दूसरा शेर
"यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।"
शब्दार्थ: दरख़्तों = पेड़ों, साये = छाया/शरण।
व्याख्या: आम तौर पर पेड़ों की छाया में शीतलता मिलती है, लेकिन यहाँ (देश की वर्तमान व्यवस्था में) पेड़ों के नीचे भी धूप लग रही है। अर्थात, जिन संस्थाओं या नेताओं का काम जनता की रक्षा करना और सुख देना था, वही अब शोषण कर रहे हैं और दुख दे रहे हैं। कवि ऐसी अव्यवस्था से दूर कहीं चले जाना चाहते हैं।
भाव: यह शासन व्यवस्था के विरोधाभास और जन-कल्याणकारी संस्थाओं के पतन पर व्यंग्य है।
3. तीसरा शेर
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।"
शब्दार्थ: मुनासिब = अनुकूल/उपयुक्त (Suitable)।
व्याख्या: भारत की गरीब जनता इतनी दबी-कुचली और संतोषी है कि अगर उनके पास पहनने को कमीज (कपड़े) नहीं है, तो वे विरोध नहीं करते। वे अपने पैरों को सिकोड़कर अपना पेट ढँक लेते हैं। कवि व्यंग्य करते हैं कि ऐसे ही गूंगे और बहरे लोग भ्रष्ट शासकों के लिए बहुत उपयुक्त हैं, क्योंकि ये कभी अपने अधिकारों के लिए आवाज नहीं उठाते।
भाव: यह जनता की निष्क्रियता और गरीबी के प्रति उनकी लाचारी को दर्शाता है।
4. चौथा शेर
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।"
शब्दार्थ: हसीन = सुंदर, नज़ारा = दृश्य।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि अगर ईश्वर का अस्तित्व नहीं है, तो कोई बात नहीं। कम से कम वह मनुष्य का एक सपना तो है। ईश्वर के होने का विश्वास आदमी को कष्टों में भी जीने का सहारा देता है। यह एक 'हसीन नज़ारा' है जो आँखों को सुकून देता है, भले ही वह सच न हो।
भाव: यहाँ आम आदमी की धार्मिक आस्था पर कटाक्ष है कि वे यथार्थ (सच्चाई) से भागने के लिए धर्म या ईश्वर के सपनों का सहारा लेते हैं।
5. पाँचवाँ शेर
> "वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
> मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए।"
>
* शब्दार्थ: मुतमइन = आश्वस्त (Confident), बेक़रार = बेचैन।
* व्याख्या: सत्ता में बैठे लोग (शासक वर्ग) पूरी तरह आश्वस्त हैं कि यह जनता पत्थर के समान है, इसमें कोई संवेदना नहीं है, इसलिए यह कभी विद्रोह नहीं करेगी (पत्थर पिघल नहीं सकता)। दूसरी ओर, कवि (शायर) को बेचैनी से इंतजार है कि कब आम आदमी की आवाज में जोश और असर आएगा, जिससे यह व्यवस्था बदलेगी।
* भाव: यह शेर सत्ता के अहंकार और कवि के क्रांतिकारी आशावाद को दिखाता है।
6. छठा शेर
> "तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की,
> ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।"
>
* शब्दार्थ: निज़ाम = शासन/व्यवस्था, एहतियात = सावधानी, बहर = गज़ल का छंद (Metre)/शेर।
* व्याख्या: कवि शासक को चुनौती देते हुए कहते हैं कि तुम्हारी सत्ता है, तुम चाहो तो शायर (विरोध करने वाले) की जुबान सिल सकते हो (सेंसरशिप लगा सकते हो)। जैसे गज़ल के छंद (बहर) को साधने के लिए शब्दों का बंधन जरुरी है, वैसे ही अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए शासकों को विरोध की आवाज दबानी पड़ती है।
* भाव: यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले और तानाशाही रवैये का विरोध है।
7. सातवाँ (अंतिम) शेर
> "जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले,
> मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।"
>
* शब्दार्थ: गुलमोहर = एक फूलदार पेड़ (यहाँ यह 'सपनों' या 'स्वाभिमान' का प्रतीक है)।
* व्याख्या: कवि कहते हैं कि हमारा जीवन हमारे अपने सिद्धांतों और सपनों (गुलमोहर) के लिए होना चाहिए। अगर हम अपने घर में जिएं, तो अपनी मान्यताओं के साथ जिएं। और अगर मरें, तो दूसरों के लिए संघर्ष करते हुए उन्हीं आदर्शों के लिए मरें।
* भाव: यह शेर स्वाभिमान, परोपकार और अपने आदर्शों के प्रति निष्ठा का संदेश देता है।
काव्य-सौंदर्य (विशेषताएँ)
परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने के लिए आप उत्तर में ये बिंदु जोड़ सकते हैं:
* भाषा: इस गज़ल की भाषा 'खड़ी बोली हिंदी' और 'उर्दू' का सुंदर मिश्रण (हिंदुस्तानी भाषा) है। (जैसे- चराग़, मयस्सर, दरख़्त, निज़ाम)।
* शैली: यह एक व्यंग्यात्मक (Satirical) रचना है।
* छंद: यह गज़ल विधा में लिखी गई है।
* रस: इसमें शांत और वीर रस (विद्रोह के भाव में) की प्रधानता है।
* प्रतीक:
* साये में धूप = विषम परिस्थितियाँ/व्यवस्था की विफलता।
* गुलमोहर = मानवी मूल्य, सपने या आदर्श।
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